पूर्ण विक्षिप्त मन
अंतर्राष्ट्रीय समस्या ने घेर लिया है जन-जन को
दुःख से आतुर पूर्ण विक्षिप्त किया है मन-मन को
तन काम खतम, मन बोझ सितम बढ़े जा रहे हैं
लोग घरों में बंद हुए चेहरों से अपने डरे जा रहे हैं
सामान्यावस्था आने की अब उम्मीदें रुठ रही हैं
बिन बारातें आए घरों से वधुओं की डोली उठ रही है
अवसाद ग्रसित हैं लोग अब खुद में लड़े जा रहे हैं
गणनाएँ अब विस्मृत हो रहीं जैसे सब मरे जा रहे हैं
काम-धंधे चौपट हो रहे, दिहाड़ी भी है कम हुई
निरत बढ़ते कार्यों की अब वेतन क्षति हरदम हुई
मजबूरी और उम्मीदों में वो सब काम करे जा रहे हैं
जितने प्रगति पर बैठे थे नित प्रगति पर बढ़े जा रहे हैं
मोबाइल-कम्प्यूटर पर विद्यार्थियों का नाम हो रहा है
घरों में आराम करते थे आज घरों से काम हो रहा
कहीं बेरोजगारी तो कहीं शोषण पर अड़े जा रहे हैं
बंदिशों के हालातों पर रोज नए पहरे कड़े जा रहे हैं
तन काम खतम, मन बोझ सितम बढ़े जा रहे हैं
लोग घरों में बंद हुए चेहरों से अपने डरे जा रहे हैं
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