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बरसात की रात



बरसात की एक रात

बारिश.....मुझे हमेशा से बारिश से थोड़ी सी नाराजगी रही है और क्यूँ न हो इसने कितनी बार मुझे जरूरी कामों के लिए देरी कराई है, कितनी बार मेरे बाहर जाने के प्लान को चौपट किया है, मेरे जीवन में इसकी अहम भूमिका रही है। मैंने सोचा नहीं था कि अचानक ये बारिश कुछ ऐसा कर देगी कि मेरी नाराज़गी एक दिन इसी में धूल जाएगी। बात 2 साल पहले की है जब मैं भोपाल से दिल्ली आ रही थी रात का सफर और ट्रेन में आरक्षण (reservation) न हो तो परेशानी तो होती ही है। मेरा जाना अगर जरूरी नहीं होता तो शायद कभी न जाती ऐसे; लेकिन क्या करें बॉस ने बहुत जरूरी काम के सिलसिले में  छुट्टी खत्म होने के एक हफ्ते पहले ही बुला लिया था वो भी अचानक। खैर छोड़ो मैं घर से बहुत सारी हिदायतों की गठरी साथ बाँध कर निकल ही रही थी कि अचानक मेरी बहन तान्या ने बताया कि "दीदी आपका जाना आज मुश्किल लग रहा है मौसम खराब हो रहा है, बादल गरज रहे हैं बिजली चमक रही है ऐसे में बहुत परेशानी होगी जाने में। उसकी बात सुनकर मैंने एक बार ऊपर की ओर देखा फिर अपने फ़ोन की ओर, और मुझे याद आया कि रिया तेरा आज जाना बहुत जरूरी है अगर नहीं गई तो बॉस को क्या जवाब देगी। मैं नहीं चाहती थी कि मुझे मिले किसी काम के लिए मुझे अंत समय पर मना करना पड़े तो बस ये ही सोचते सोचते मैं घर से निकल गई।
स्टेशन पर पहुँच कर टीसी से बहुत मनुहार की कि वो मेरी टिकट बना दे और सीट दे दे किंतु उसका हर बार एक ही जवाब कि मैडम सीट होती तो आपको अब तक मिल जाती। मेरे बहुत विनती करने पर उसने मेरी टिकट बना दी जिससे मैं ट्रेन में चढ़ सकती थी लेकिन सीट देने का उसने कोई वादा नहीं किया। मैं अपना छोटा सा बैग लेकर डिब्बे में चढ़ गई, और देखने लगी कि कहीं कोई सीट खाली हो तो बैठ सकूँ उसपर। बिजली जोर से चमक रही थी ऐसा लगा जैसे बारिश की कुछ बूँदें बिना टिकट के डिब्बे में चढ़ रही हों। एक डिब्बा छोड़कर दूसरे डिब्बे में मुझे भाग्य से एक सीट मिल गई, मेरी पसंदीदा सीट (साइड लोवर) मेरी जगह अगर आप होते तो शायद आपके चेहरे पर खुशी से एक मुस्कुराहट जरूर आती, सच बताऊँ तो मेरे भी वो वाली मुस्कुराहट आ ही जाती अगर वो कुछ बूँदें मेरी सीट पर न गिरी होतीं। मुझे नहीं पता था कि आज बारिश किसी और इरादे से आई है, वो शायद मेरी नाराज़गी खत्म करने आई थी, मेरी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाने आई थी।
मैंने अपने रूमाल से सीट को पोंछा और उसपर बैठ गई ट्रेन भोपाल से निकल चुकी थी मैं मन ही मन बस प्रार्थना किये जा रही थी कि जिस भी भले मानस की ये जगह हो वो न आए। रात का सफर था तो कुछ देर बाद ही मुझे हल्की सी नींद ने घेर लिया।
"मैडम आपका दुपट्टा....ओ मैडम आपका दुपट्टा... संभालें इसे" एक महिला मुझे थोड़ा हिलाते हुए बोल रही थी देखा तो इतने में एक अजनबी ने मेरा दुपट्टा उठाकर सीट पर रख दिया। उस महिला को अपना सामान खींचते हुए शायद दरवाज़े की तरफ जाना था जिसमें मेरा दुपट्टा नीचे गिरकर उनका रास्ता रोक रहा था। मैंने उस अजनबी को देखा जो कि देख चुका था कि मैंने उसे दुपट्टा उठाते हुए देख लिया है तो उसने उस महिला की तरफ आँखों से इशारा किया। मैं समझ गई कि ये मेरे दुपट्टे उठाने की सफाई दी रहा है। बारिश धीरे-धीरे तेज़ होने लगी मैं खिड़की बंद करने को उठी तो वो अजनबी मेरी मदद के लिए मुझसे पहले उठ गया और मेरी खिड़की बंद कर दी। मैं धन्यवाद देते हुए बैठ गई।
वो मेरी ही सीट (मुझे जो मिली) पर मेरे सामने बैठा हुआ था, मेरा मन हुआ कि पूछूँ उससे वो यहाँ क्यों बैठा है? क्या ये उसकी सीट है या वो भी मेरी तरह मन में प्रार्थना करके बैठा है कि किसी तरह बैठने की जगह मिल जाए और ये सफर कट जाए। मैं उससे पूछूँ या न पूछूँ इसी उधेड़बुन में नज़रें चुराकर उसे बीच बीच में देख रही थी। वो भी शायद समझ गया था कि मैं कुछ कहना चाहती हूँ उसे। उसे ऐसे चोरी से देखते-देखते फिर मुझे हल्की सी नींद आ गई। "एक्सक्यूज मी! टिकट दिखाइए" टीसी की जब ये आवाज़ मेरे कानों में पड़ी तो मैं आँख खोलकर उसे पूरी कहानी बताने ही वाली थी कि इतने में उस अजनबी को मैंने कहते सुना- " देखिए ये मेरे साथ हैं, वो दरअसल इनका साथ चलने का प्रोगाम अचानक से बना तो सीट नहीं मिल पाई। टीसी ने उसकी बात सुनी और कहा "ठीक है लेकिन डिब्बे में चढ़ने से पहले कोई टिकट बनवा लेते" । ये सुन मुझे लगा कि इससे पहले कि ये कुछ बोले मुझे टिकट दिखा देनी चाहिए । मैंने आँखें खोलकर बड़ी सहजता से टीसी को अपनी टिकट दिखा दी।
टीसी जा चुका था और मेरी नींद भी शायद अपने साथ ले गया। मैंने सोचा नहीं था कि इस तरह के भी लोग होते हैं जो बिना किसी वजह के बिना जाने-पहचाने किसी की बिना माँगे मदद करते हैं। मैं उसे देख ही रही थी कि इतने में उसने मेरी तरफ हाथ बढ़ाते हुए कहा- हैलो! मेरा नाम आकाश है। मैंने हल्की मुस्कुराहट के साथ उससे हाथ मिलाया और अपना परिचय दिया "हैलो मैं रिया!" मैंने महसूस किया कि एक अलग ही चमक थी उसकी आँखों में। आगे वो कहने लगा "सॉरी वो आप सो रही थीं तो मैंने सोचा टीसी से मैं ही बात कर लेता हूँ।" मैंने उसे धन्यवाद दिया और बताने लगी कि कैसे  सच में मेरा आखिरी वक्त पर जाने का प्लान बना और मुझे निकलना पड़ा। धीरे-धीरे हमारी बातें बढ़ने लगीं उसने अपने बारे में बहुत कुछ बताया और मैंने भी थोड़ा बहुत उसे अपने बारे में बताया। बारिश बहुत तेज़ होने लगी रात के ग्यारह बज गए पर हम दोनों बातों में इतने मशगूल थे कि न ही समय की तरफ ध्यान जा रहा था और न इस बात पर कि कैसे हम इतनी जल्दी अजनबी से दोस्त बन रहे थे। उसने मुझे बताया कि उसे बारिश कितनी पसंद है। "रिया मैं आपको बताऊँ अगर किसी को कोई परेशानी न हो तो मैं ये दोनों खिड़कियाँ खोल दूँ और एक अच्छी सी गरम-गरम चाय पिऊँ। ज़ोर ज़ोर से गाना गाऊँ।" मैं उसकी बात सुनकर हंसने लगी। मैंने महसूस नहीं किया कि जिस बारिश का जिक्र सुनकर मेरा दिमाग खराब हो जाता है मैं आज उसी के बारे में इतना खुश होकर बात कर रही हूँ...या यूँ कहूँ कि बात सुन रही हूँ। आकाश बोले जा रहा था और मैं सुने जा रही थी उसकी बातें सुनते हुए लगा कि सच बारिश इतनी बुरी चीज नहीं रिया, जितनी तुम समझती हो। कुछ देर बाद बीच में कहीं ट्रेन रुक गई न कोई स्टेशन न कुछ खास रोशनी। सच कहूँ तो आकाश नहीं होता तो सच ये सफर बहुत बुरा होता...मैं बहुत ज्यादा डरती और भगवान से बस प्रार्थना करती जल्दी ट्रेन चलने लगे। पर आकाश के साथ बात करते हुए ट्रेन का वो रुकना बुरा नहीं लगा...बारिश थोड़ी मद्धम हो चुकी थी आकाश ने मुझसे पूछकर दोनों खिड़कियाँ खोल दीं। अब हल्की हल्की बारिश की बौछारें और दिल तक सुकून पहुँचाने वाले हवा के झोंकों के बीच हम दोनों एक दूसरे के दिल तक का रास्ता बना रहे थे। ट्रेन में ज्यादा रोशनी नहीं थी तो हम एक दूसरे को इतना साफ नहीं देख सकते थे पर उसकी आँखों की चमक मुझे साफ दिख रही थी।
कुछ देर बाद एक चाय वाला आया और शायद उसने आकाश का रोकना सुना नहीं और चला गया। आकाश उसके पीछे-पीछे गया। आकाश जैसे ही उठा उसकी सीट पर मुझे एक डायरी दिखी मेरे मन के मना करने के बाद भी मैंने वो उठा ली और अपने फोन की फ़्लैश लाइट में एक पेज खोला- बहुत ही सुंदर अक्षरों में एक नज़्म लिखी हुई थी- जिसका शीर्षक था
'बरसात की रात'
"कुछ अँधेरे में, एक सफर पर
बारिश की बौछारों के बीच
मैं भीग जाऊँ तेरे अहसास में
और आ जाऊँ तेरे पास में....."

मैंने पूरी नज़्म पढ़े बिना ही अचानक डायरी बंद कर दी। दिल थोड़ा तेज़ धड़कने लगा ऐसा लगा मानो आकाश ने इसी सफर को लिखा हो अपनी नज़्म में...मैं न चाहते हुए भी आकाश के बारे में सोचे जा रही थी। इतने में आकाश 2 कप गरम-गरम चाय ले आया। उसने अपनी डायरी देखी और वहीं साइड में रखते हुए बैठ गया। रात का एक बज गया। बारिश थोड़ी तेज़ होने लगी आकाश खिड़की बंद करने को उठने लगा तो मैंने कहा-" रहने दो कुछ देर ऐसे ही बैठते हैं" मैं सोचने लगी कि ये क्या हुआ मुझे, मैं बारिश पसंद कर रही हूँ या आकाश मुझे कुछ-कुछ पसंद आ रहा है। चाय पीते पीते हम दोनों ही बारिश का लुत्फ लेने लगे। आकाश ने पूछा "रिया क्या तुम नज़्म, शायरी या कविताओं में दिलचस्पी रखती हो?" मेरे हाँ कहने पर उसके चेहरे पर एक मुस्कुराहट चहकने लगी। उसने कहा चलो फिर मैं तुम्हें अपनी एक नज़्म सुनता हूँ, सुनोगी? मैंने कहा जरूर... जरूर, हम भी तो देखें जनाब कितना उम्दा लिखते हैं। मेरा दिल चाह रहा था कि कहूँ उसे कि आकाश मुझे वही नज़्म सुनाओ न वो 'बरसात की रात' पर न कह सकी। आकाश ने अपनी डायरी खोली और वही पेज खुला जिसपर वही नज़्म थी जो मैं सुनना चाह रही थी। आकाश ने सुनाना शुरू किया- "बरसात की........" इतना कहकर ही वो कुछ सोच कर चुप हो गया और कुछ दूसरी नज़्म सुनाने लगा। पर मेरा दिल तो बस उसी नज़्म पर ठहरा हुआ था। बातें करते करते हमें बैठे-बैठे कब नींद आ गई कब ट्रेन चल दी मुझे पता नहीं चला। सुबह नींद खुली तो देखा आकाश अपने बैग को देखा रहा था मेरे पूछने पर उसने मुझे बताया कि उसका स्टेशन आने वाला है मेरा मन हुआ कि कह दूँ उसे कि मत जाओ आकाश। मुझे अभी बारिश से और प्यार करना है, मैं तुम्हारे साथ एक और ऐसी ही 'बरसात की रात' बात करते हुए आँखों में निकालना चाहती हूँ, मन किया कि कहुँ बैठो न मुझे तुमसे तुम्हारी और नज़्म सुननी है खास कर वो 'बरसात की रात' पर दिल की बात दिल में रह गई और आकाश का स्टेशन आ गया और वो चला गया। कुछ देर बाद मेरा स्टेशन (दिल्ली) भी आने ही वाला था। आकाश के जाने के बाद मैंने देखा कि उसकी सीट पर एक कागज रखा हुआ है मुड़ा हुआ। मैंने खोला उस पर ऊपर ही ऊपर लिखा था-
'बरसात की रात' हाँ वो वही पेज था, वही नज़्म वाला पेज, वही नज़्म और नीचे लिखा था "रिया ये तुम्हारे लिए। मैंने ये नज़्म कुछ दिन पहले ही लिखी थी मुझे नहीं पता था कि इतनी जल्दी ये नज़्म हकीकत बन मेरे सामने आ जाएगी। रिया तुम्हारे साथ ये सफर कैसे गुजरा पता ही नहीं चला। मुझे खुशी है कि अब शायद ये बारिश तुम्हारी भी दोस्त बन गई होगी। रिया मुझे नहीं पता कि ऐसा क्या हुआ इस सफर में, क्या हुआ इस बरसात की रात में पर इतना जरूर कहूँगा कि मैं ऐसे सफर का फिर इंतज़ार करूँगा। ऐसी बरसात की रात का फिर इंतज़ार करूँगा। और दुआ करूँगा कि तुम फिर से बिना रिजर्वेशन ट्रेन में चढ़ो और फिर से मेरी ही सीट पर बैठो।" उसकी ये नज़्म और वो छोटा सा पत्र पढ़कर मुझे मन ही मन में बहुत खुशी हुई और दुःख भी हुआ इस बात का कि काश इतनी बातों के बीच उसका नंबर ले लिया होता। मुझे आकाश से और आकाश की बारिश से कुछ-कुछ मोहब्बत होने लगी। 2 साल बीत गए बारिश से मोहब्बत बढ़ती जा रही है। 2 साल से उसी बरसात की एक रात का इंतज़ार है।

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